भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में ग्वालियर की सांगीतिक विरासत सदियों पुरानी हैं। कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर के शासनकाल या संभवत: उससे पहले ही आरंभ हुए "ग्वालियर घराने" ने देश को ब्रम्हनाद के एक से एक बड़े साधक दिए हैं। संगीत मनीषी बैजू बावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्यों और गायक गणों से सुशोभित राजा मानसिंह का दरबार हो या फिर संगीत शिरोमणि तानसेन की तान से झुका शिव मंदिर। ग्वालियर की सांगीतिक परंपरा के ऐसे ही प्रमाणों से ऐतिहासिक ग्रंथ भरे पड़े हैं।
ग्वालियर के सांगीतिक वैभव के बारे में तमाम इतिहासकारों ने शिद्दत के साथ लिखा है। उर्दू इतिहासकार फरिस्ता द्वारा लिखित ग्रंथ "तारीख-ए-फरिस्ता" के शुरूआती अध्याय में ही ग्वालियर की संगीत विरासत के संबंध में विस्तार से जिक्र किया है। फरिस्ता लिखता है कि यहाँ संगीत का प्रादुर्भाव मालचंद द्वारा किया गया। मालचंद के बारे में किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं, कि वह शास्त्रीय संगीत को दक्षिण भारत से ग्वालियर लाया। मालचंद ने लंबे समय तक ग्वालियर में साधना की। मालचंद के साथ ग्वालियर आए तलिंगी संगीतकारों के वंशज पूरे उत्तर भारत में फैल गए। फरिस्ता द्वारा लिखे गए इस वाकये से जाहिर होता है कि ग्वालियर की संगीत परंपरा बहुत पुरानी है और कई शताब्दियों से संबंध रखती है। राजा मानसिंह तोमर के राज्यकाल में ग्वालियर का सांगीतिक वैभव अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुँच गया है।तोमर राजवंश द्वारा संगीत की विकास यात्रा में दिए गए योगदान के एतिहासिक प्रमाण ख्वाजा नजीमुद्दीन अहमद द्वारा लिखित "तबाकात-ए-अकबरी" में भी मिलते हैं। इस किताब में उल्लेख मिलता है कि तोमर वंशी राजा डूंगर सिंह और कश्मीर के शासक जैन-उल-आबेदीन के बीच संगीत संबंधी ग्रंथो का आदान प्रदान हुआ था। पन्द्रहवीं शताब्दी में राजा मानसिंह के प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र बना। राजा मानसिंह स्वयं भी संगीत के महान पारखी थे। उन्हें संगीत साधना में अपनी प्रेयसी रानी मृगनयनी से भी बहुत सहायता मिलती थी। मृगनयनी की यादगार के रूप में चार रागों का सृजन भी हुआ। इन रागों को मृगनयनी के नाम के आधार पर गूजरी, बहुल गूजरी, माल गूजरी और मंगल गूजरी कहा गया।
राजा मानसिंह ने "मानकुतूहल" नामक एक संगीत ग्रंथ की रचना भी की। इस ग्रंथ में राजा मानसिंह द्वारा एक विशाल सगीत सम्मेलन कराए जाने का उल्लेख भी मिलता है। इसकी पुष्टि मुगल काल में अबुल फजल द्वारा लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक आइन-ए-अकबरी से भी होती है। अबुल फजल ने लिखा है कि राजा मानसिंह द्वारा आयोजित किए गए सम्मेलन में राजदरबार के कलाकारों अर्थात नायक, बख्शू, मच्चू और भानु ने ऐसे गीतों का संकलन किया जो भारतीय संस्कृति की गंगा जमुनी तहजीब के अनुकूल थे।
राजा मानसिंह तोमर का राजदरबार बैजू बावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गणों से सुशोभित था। इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। राजदरबार में बिख्शु, घोन्डी और चरजू के नामों का भी उल्लेख मिलता है। एम सी गांगुली द्वारा रचित "रागज एण्ड रागनीज" पुस्तक में जिक्र है कि इन्ही तीनों कलाकारों द्वारा रागों के भण्डार में एक नए प्रकार के मल्हार का प्रणयन किया, जो बख्सू की मल्हार, धोन्डिया की मल्हार और चाजू की मल्हार के नाम से मशहूर हुई।
ध्रुपद, धमार, ख्याल, टप्पा, ठुमरी, दादरा, लेदा, गजल, तराना, त्रिपट और चतुरंग आदि संगीत शैलियाँ ग्वालियर घराने की प्रमुख विशेषताएँ हैं। राजा मानसिंह द्वारा पोषित संगीत घराने की विशेषता यह थी कि उसने उत्तर भारत के लोकप्रिय लोक संगीत को अंगीकार किया और उसे उच्च कोटि के वैविध्यपूर्ण संगीत के रूप में सजाया। इससे लोक रागों, शास्त्रीय रागों और संगीत की पारंपरिक विविधता को एक नई और ओजस्वी अभिव्यक्ति मिली। इस घराने ने संगीत की ध्रुपद नामक एक नई शैली की आधारशिला रखी, जो तानसेन का जादू भरा स्पर्श पाकर लोकप्रियता के उच्च शिखर तक पहुंची।
कंठ संगीत में तानसेन अद्वितीय थे। अबुल फजल ने "आइन-ए-अकबरी" में तानसेन के बारे में लिखा है कि "उनके जैसा गायक हिंदुस्तान में पिछले हजार वर्षों में कोई दूसरा नहीं हुआ है" उन्होंने जहाँ "मियां की टोड़ी" जैसे राग का आविष्कार किया वहीं पुराने रागों में परिवर्तन कर कई नई - नई सुमधुर रागनियों को जन्म दिया। तानसेन द्वारा रचे हुए “संगीत सार” और “राग माला” ग्रंथ भी उनके संगीत सिद्धांत विषयक ज्ञान के परिचायक हैं। मुगल काल में ग्वालियर का संगीत के क्षेत्र में कितना अधिक योगदान था इसका जिक्र अबुल फजल ने बड़ी शिद्दत के साथ किया है। उसने आइन-ए-अकबरी में जिन 36 महान संगीतकारों का उल्लेख किया है उनमें तानसेन सहित 16 संगीतकार ग्वालियर के ही थे।
सिंधिया शासकों के समय भी ग्वालियर में संगीत कला खूब फली फूली। उनके आश्रय में ख्याल शैली के प्रथम शास्त्रीय घराने का भी जन्म हुआ। ग्वालियर शैली जिसे लश्करी गायकी के नाम से भी जाना जाता है। इसकी स्थापना का श्रेय हद्दू खाँ, हस्सू खाँ और नत्थू खाँ को जाता है। इन्ही तीनों भाईयों को द्रुत गति वाली ख्याल गायकी की शैली के आविष्कार का श्रेय है। इस शैली में "कलावंत" और "कब्बाली" का मिश्रण देखने को मिलता है। हद्दू खाँ और हस्सू खाँ के वंशजों और शिष्यों में रहमत खाँ और हुसैन खाँ ने भी संगीत के क्षेत्र में काफी ख्याति प्राप्त की।
संगीत परंपरा की इसी कडी में शंकर पंडित जी ने आधुनिक काल में लोक प्रियता का परचम लहराया। उनके सुपुत्र श्री कृष्ण राव पंडित भी उच्च कोटि के संगीत कलाकार थे। इसी कड़ी में पं. लक्ष्मण कृष्णराव पण्डित ने ग्वालियर घराने की परंपरा को आगे बढ़ाया है। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सरोद वादक जनाब अमजद अली खाँ साहब एवं अन्य युवा संगीत कलाकार ग्वालियर के संगीत का परचम दुनियाभर में लहरा रहे हैं।
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